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Friday, December 14, 2018

कई सर-ज़मीनें सदा दे रही हैं

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कई सर-ज़मीनें सदा दे रही हैं कि आओ
कई शहर मेरे त'आक़ुब में हैं चीख़ते हैं न जाओ
कई घर लब-ए-हाल से कह रहे हैं
कि जब से गए हो
हमें एक वीरान तन्हाई ने डस लिया है
पलट आओ फिर हम को आबाद कर दो

वो सब घर
वो सब शहर.... सब सर-ज़मीनें
मोहब्बत की छोड़ी हुई रहगुज़र बन गई हैं
कभी मंज़िलें थीं मगर आज गर्द-ए-सफ़र बन गई हैं
मोहब्बत सफ़र है
मुसलसल सफ़र है
सो मैं तुझ से तेरी ही जानिब सफ़र कर रहा हूँ

*सदा=पुकार; त’आक़ुब=पीछा करना; रहगुज़र=रास्ता; गर्द-ए-सफ़र=रास्ते की धूल; मुसल्सल=न रुकने वाला

‍~ सलीम अहमद

 Dec 14, 2018 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

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