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Saturday, December 8, 2018

मुलाक़ात’

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जो हो न सकी बात वो चेहरों से अयाँ थी
हालात का मातम था मुलाक़ात कहाँ थी
उस ने न ठहरने दिया पहरों मिरे दिल को
जो तेरी निगाहों में शिकायत मिरी जाँ थी
*अयाँ=स्पष्ट

घर में भी कहाँ चैन से सोए थे कभी हम
जो रात है ज़िंदाँ में वही रात वहाँ थी
यकसाँ हैं मिरी जान क़फ़स और नशेमन
इंसान की तौक़ीर यहाँ है न वहाँ थी
*ज़िंदाँ=कारागार; क़फ़स=पिंजरा; नशेमन=घोसला

शाहों से जो कुछ रब्त न क़ाएम हुआ अपना
आदत का भी कुछ जब्र था कुछ अपनी ज़बाँ थी
सय्याद ने यूँही तो क़फ़स में नहीं डाला
मशहूर गुलिस्ताँ में बहुत मेरी फ़ुग़ाँ थी
*शाहों=राजाओं; रब्त=सम्बंध; क़ाएम=स्थापित करना; जब्र=अत्याचार; फ़ुग़ाँ=फ़रियाद

तू एक हक़ीक़त है मिरी जाँ मिरी हमदम
जो थी मिरी ग़ज़लों में वो इक वहम-ओ-गुमाँ थी
महसूस किया मैं ने तिरे ग़म से ग़म-ए-दहर
वर्ना मिरे अशआर में ये बात कहाँ थी
*ग़म-ए-दहर=दुनिया के दुख; अशआर=शेर का बहु वचन

~ हबीब जालिब

‘मुलाक़ात’ नज़्म हबीब जालिब ने उन दिनों लिखी थी जब वो सरकार विरोधी आंदोलन में भाग लेने की वज़ह से जेल में बंद थे, और उनके परिवार को बहुत मुसीबतें उठानी पड़ रहीं थीं।


 Dec 08, 2018 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

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