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Saturday, March 16, 2019

ज़ेहन जब तक है

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ज़ेहन जब तक है
ख़यालात की ज़ंजीर कहाँ कटती है,
होंट जब तक हैं
सवालात की ज़ंजीर कहाँ कटती है,
बहस करते रहो लिखते रहो नज़्में ग़ज़लें
ज़ेहन पर सदियों से तारी (छायी) है जो मज्लिस (महफ़िल) की फ़ज़ा
इस ख़ुनुक (ख़ुशनुमा) आँच से क्या पिघलेगी
सोच लेने ही से हालात की ज़ंजीर कहाँ कटती है

नींद में डूबी हुई आँखों से वाबस्ता ख़्वाब
तेज़ किरनों की सिनानों (स्नान) पे ही रुस्वा सर-ए-आम
ये शहीद अपनी सलीबों से पलट आते हैं दिल में हर शाम
सुब्ह होती है मगर रात की ज़ंजीर कहाँ कटती है

दिन गुज़र जाता है बे-फ़ैज़ (बग़ैर ख़ुशी) कद-ओ-काविश (प्रयत्न) में
एक अन-देखे जहन्नम की तब-ओ-ताबिश (चमक-दमक) में
जिस्म और जाँ की तग-ओ-ताज़ (मेहनत-मुश्किल) की हर पुर्सिश (पूछ ताछ) में
दर्द-ओ-ग़म हसरत-ओ-महरूमी की हर काहिश (कमी) में
तलब-ओ-तर्क-ए-तलब सिलसिला-ए-बे-पायाँ (समाप्ति)
मर्ग (मृत्यु) ही ज़ीस्त का उन्वान (शीर्षक) है हर ख़ून-शुदा ख़्वाहिश में
ग़म से भागें भी तो फ़रियाद-ओ-शिकायात की ज़ंजीर कहाँ कटती है

वक़्त वो दौलत-ए-नायाब है आता नहीं हाथ
हम मशीनों की तरह जीते हैं पाबंदी-ए-औक़ात के साथ
वक़्त बे-कार गुज़रता ही चला जाता है
कुर्सियों मेज़ों से बे-मा'नी मुलाक़ातों में
सैंकड़ों बार की अगली हुई दोहराई हुई बातों में
मंदगी रहने की तमन्ना की मुदारातों (आतिथ्य) में
शिकम-ओ-जाँ (पेट और जान) की इबादात की ज़ंजीर कहाँ कटती है

सुब्ह से शाम तलक इतने ख़ुदा मिलते हैं हर काफ़िर को
सज्दा-ए-शुक्र से इंकार की मोहलत नहीं मिलने पाती
सैंकड़ों लाखों ख़ुदाओं की नज़र से छुप कर
ख़ुद से मिल लेने की रुख़्सत नहीं मिलने पाती
ख़ुद-परस्तों (स्वार्थी) से भी ताआत (इबादत) की ज़ंजीर कहाँ कटती है

रात आती है तो दिल कहता है हम अपने हैं
ख़ल्वत-ए-ख़्वाब (ख़्वाब की तन्हाई) में दुनिया से किनारा कर लें
कल भी देना है लहू अपना दिल-ओ-दीदा (दिल और आँख) की झोली भर लें
जिस्म के शोर से और रूह की फ़रियाद से दम घुटता है
दिन के बे-कार ख़यालात की ज़ंजीर कहाँ कटती है
बे-नियाज़ाना (बेफ़िकी में) भी जीना है फ़क़त एक गुमाँ
फ़िक्र-ए-मौजूद (होने का ग़म) को छोड़ें तो ग़म-ए-ना-मौजूद (नहीं रह जाने का दुख)
साथ हर साँस के है सिलसिला-ए-हसत-ओ-बूद (क्या था और क्या है)
ग़म-ए-आफ़ाक़ (दुख का आसमान) को ठुकराएँ करें तर्क-ए-जहाँ (दुनिया का त्याग)
फिर भी ये फ़िक्र कि जीने का हो कोई उनवाँ
बे-नियाज़ी (बेफ़िक्री) से ग़म-ए-ज़ात (ख़ुद के दुख) की ज़ंजीर कहाँ कटती है

ज़ेहन में अंधे अक़ीदों (विश्वास) की सियाही भर लो
ताकि इस नगरी में
कभी अफ़्कार (चिंताएँ) के शो'लों का गुज़र हो न सके
जब्र (मजबूरी) का हुक्म सुनो
होंटों को अपने सी लो
ताकि उन राहों से
कभी लफ़्ज़ों का सफ़र हो न सके
ज़ेहन-ओ-लब फिर भी नहीं चुप होते
उन के ख़ामोश सवालात की
पेच-दर-पेच (उलझे हुए) ख़यालात की
ज़ंजीर कहाँ कटती है

~ वहीद अख़्तर


 Mar 16, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

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