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Saturday, March 30, 2019

हवा हर इक सम्त बह रही है

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हवा हर इक सम्त बह रही है
जिलौ में कूचे मकान ले कर
सफ़र के बे-अंत पानियों की थकान ले कर
जो आँख के इज्ज़ (दुर्बलता) से परे हैं
उन्ही ज़मानों का ज्ञान ले कर
तिरे इलाक़े की सरहदों के निशान ले कर
हवा हर इक सम्त बह रही है

ज़मीन चुप
आसमान वुसअ'त (फैलाव) में खो गया है
फ़ज़ा सितारों की फ़स्ल से लहलहा रही है
मकाँ मकीनों (मकान में रहने वाला) की आहटों से धड़क रहे हैं
झुके झुके नम-ज़दा (भीगा हुआ) दरीचों में
आँख कोई रुकी हुई है

फ़सील-ए-शहर-ए-मुराद (पसंदीदा शह्र के चारो ओर) पर
ना-मुराद (अभागी) आहट अटक गई है
ये ख़ाक तेरी मिरी सदा (पुकार) के दयार (इलाक़ा) में
फिर भटक गई है

दयार शाम-ओ-सहर के अंदर
निगार-ए-दश्त-ओ-शजर (पेड़ और जंगलों की रंग साज़ी) के अंदर
सवाद-ए-जान-ओ-नज़र (सवाद=स्वाद) के अंदर
ख़मोशी बहर-ओ-बर (पानी और ज़मीन) के अंदर
रिदा-ए-सुब्ह-ए-ख़बर (रिदा=ओडः‌अने की चादर) के अंदर
अज़िय्यत (कष्ट) रोज़-ओ-शब में
होने की ज़िल्लतों में निढाल सुब्हों की
ओस में भीगती ठिठुरती
ख़मोशियों के भँवर के अंदर
दिलों से बाहर
दिलों के अंदर
हवा हर इक सम्त बह रही है

~ अबरार अहमद


 Mar 31, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

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