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Sunday, September 15, 2019

मंज़िल मिली मुराद मिली मुद्दआ मिला


अब क्या बताऊँ मैं तिरे मिलने से क्या मिला
इरफ़ान-ए-ग़म हुआ मुझे अपना पता मिला
*इरफ़ान-ए-ग़म=दुख से आलोकित हो कर

जब दूर तक न कोई फ़क़ीर-आश्ना मिला
तेरा नियाज़-मंद तिरे दर से जा मिला
*फ़क़ीर-आश्ना=भिक्षुक; नियाज़-मंद=ज़रूरत मंद

मंज़िल मिली मुराद मिली मुद्दआ मिला
सब कुछ मुझे मिला जो तिरा नक़्श-ए-पा मिला
*नक़्श-ए-पा=पैरों के निशान

ख़ुद-बीन-ओ-ख़ुद-शनास मिला ख़ुद-नुमा मिला
इंसाँ के भेस में मुझे अक्सर ख़ुदा मिला

सरगश्ता-ए-जमाल की हैरानियाँ न पूछ
हर ज़र्रे के हिजाब में इक आइना मिला

पाया तुझे हुदूद-ए-तअय्युन से मावरा
मंज़िल से कुछ निकल के तिरा रास्ता मिला

क्यूँ ये ख़ुदा के ढूँडने वाले हैं ना-मुराद
गुज़रा मैं जब हुदूद-ए-ख़ुदी से ख़ुदा मिला

ये एक ही तो ने'मत-ए-इंसाँ-नवाज़ थी
दिल मुझ को मिल गया तो ख़ुदाई को क्या मिला

या ज़ख़्म-ए-दिल को छील के सीने से फेंक दे
या ए'तिराफ़ कर कि निशान-ए-वफ़ा मिला

'सीमाब' को शगुफ़्ता न देखा तमाम उम्र
कम-बख़्त जब मिला हमें ग़म-आश्ना मिला

~ सीमाब अकबराबादी


 Sep 15, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

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