घंटियाँ गूँज उठीं गूँज उठीं
गैस बेकार जलाते हो बुझा दो बर्नर
अपनी चीज़ों को उठा कर रक्खो
जाओ घर जाओ लगा दो ये किवाड़
एक नीली सी हसीं रंग की कॉपी ले कर
मैं यहाँ घर को चला आता हूँ
एक सिगरेट को सुलगाता हूँ
वो मिरी आस में बैठी होगी
वो मिरी राह भी तकती होगी
क्यूँ अभी तक नहीं आए आख़िर
सोचते सोचते थक जाएगी
घबराएगी
और जब दूर से देखेगी तो खिल जाएगी
उस के जज़्बात छलक उट्ठेंगे
उस का सीना भी धड़क उट्ठेगा
उस की बाँहों में नया ख़ून सिमट आएगा
उस के माथे पे नई सुब्ह उभरती होगी
उस के होंटों पे नए गीत लरज़ते होंगे
उस की आँखों में नया हुस्न निखर आएगा
एक तर्ग़ीब (उत्तेजना) नज़र आएगी
उस के होंटों के सभी गीत चुरा ही लूँगा
ओह क्या सोच रहा हूँ मुझे कुछ याद नहीं
मैं तसव्वुर में घरौंदे तो बना लेता हूँ
अपनी तन्हाई को पर्दों में छुपा लेता हूँ
~ अख़्तर पयामी
Sep 8, 2019 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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