काश मैं तेरे बुन-ए-गोश (कान) में बुंदा होता
रात को बे-ख़बरी में जो मचल जाता मैं
तो तिरे कान से चुप-चाप निकल जाता मैं
सुब्ह को गिरते तिरी ज़ुल्फ़ों से जब बासी फूल
मेरे खो जाने पे होता तिरा दिल कितना मलूल (दुखी)
तू मुझे ढूँढती किस शौक़ से घबराहट में
अपने महके हुए बिस्तर की हर इक सिलवट में
जूँ ही करतीं तिरी नर्म उँगलियाँ महसूस मुझे
मिलता इस गोश (कान) का फिर गोशा-ए-मानूस (परिचित हिस्सा) मुझे
कान से तू मुझे हरगिज़ न उतारा करती
तू कभी मेरी जुदाई न गवारा करती
यूँ तिरी क़ुर्बत-ए-रंगीं(रंगीनियों से नज़दीकी) के नशे में मदहोश
उम्र भर रहता मिरी जाँ मैं तिरा हल्क़ा-ब-गोश (आदी)
काश मैं तेरे बुन-ए-गोश में बुंदा होता
~ मजीद अहमद
रात को बे-ख़बरी में जो मचल जाता मैं
तो तिरे कान से चुप-चाप निकल जाता मैं
सुब्ह को गिरते तिरी ज़ुल्फ़ों से जब बासी फूल
मेरे खो जाने पे होता तिरा दिल कितना मलूल (दुखी)
तू मुझे ढूँढती किस शौक़ से घबराहट में
अपने महके हुए बिस्तर की हर इक सिलवट में
जूँ ही करतीं तिरी नर्म उँगलियाँ महसूस मुझे
मिलता इस गोश (कान) का फिर गोशा-ए-मानूस (परिचित हिस्सा) मुझे
कान से तू मुझे हरगिज़ न उतारा करती
तू कभी मेरी जुदाई न गवारा करती
यूँ तिरी क़ुर्बत-ए-रंगीं(रंगीनियों से नज़दीकी) के नशे में मदहोश
उम्र भर रहता मिरी जाँ मैं तिरा हल्क़ा-ब-गोश (आदी)
काश मैं तेरे बुन-ए-गोश में बुंदा होता
~ मजीद अहमद
May 25, 2018 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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