दीप जिस का महल्लात ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले
वो जो साए में हर मस्लहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
*महल्लात=महल; मस्लहत=देख-भाल कर काम करना; सुब्ह-बे-नूर=बिना रौशनी की सुबह
मैं भी ख़ाइफ़ नहीं तख़्ता-ए-दार से
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़्यार से
क्यूँ डराते हो ज़िंदाँ की दीवार से
ज़ुल्म की बात को जहल की रात को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
*ख़ाइफ़=डरा; तख़्ता-ए-दार=जहाँ फाँसी लगाई जाती है; मंसूर=विजेता; अग्यार=गैर लोग
ज़िंदाँ=जेल; जहल=जड़ता
फूल शाख़ों पे खिलने लगे तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे तुम कहो
इस खुले झूट को ज़ेहन की लूट को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
तुम ने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फ़ुसूँ
चारागर दर्द-मंदों के बनते हो क्यूँ
तुम नहीं चारागर कोई माने मगर
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
*चारागर=चिकित्सक
~ हबीब जालिब
Apr 05, 2019 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
No comments:
Post a Comment