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Saturday, November 23, 2019

तेरे ख़तों की ख़ुश्बू

 
तेरे ख़तों की ख़ुश्बू
हाथों में बस गई है साँसों में रच रही है
ख़्वाबों की वुसअ'तों में इक धूम मच रही है
जज़्बात के गुलिस्ताँ महका रही है हर सू
तेरे ख़तों की ख़ुश्बू
*वुसअ'त=क्षेत्र; हर सू=हर तरफ

तेरे ख़तों की मुझ पर क्या क्या इनायतें हैं
बे-मुद्दआ करम है बेजा शिकायतें हैं
अपने ही क़हक़हों पर बरसा रही है आँसू
तेरे ख़तों की ख़ुश्बू

तेरी ज़बान बन कर अक्सर मुझे सुनाए
बातें बनी बनाई जुमले रटे-रटाए
मुझ पर भी कर चुकी है अपनी वफ़ा का जादू
तेरे ख़तों की ख़ुश्बू

समझे हैं कुछ उसी ने आदाब चाहतों के
सब के लिए वही हैं अलक़ाब चाहतों के
सब के लिए बराबर फैला रही है बाज़ू
तेरे ख़तों की ख़ुश्बू
*अलक़ाब=उपाधियाँ

अपने सिवा किसी को मैं जानता नहीं था
सुनता था लाख बातें और मानता नहीं था
अब ख़ुद निकाल लाई बेगानगी के पहलू
तेरे ख़तों की ख़ुश्बू

क्या जाने किस तरफ़ को चुपके से मुड़ चुकी है
गुलशन के पर लगा कर सहरा को उड़ चली है
रोका हज़ार मैं ने आई मगर न क़ाबू
तेरे ख़तों की ख़ुश्बू

~ क़तील शिफ़ाई

 Nov 23, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

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