बिछी हुई है बिसात कब से
ज़माना शातिर है और हम
इस बिसात के ज़िश्त-ओ-ख़ूब-ख़ानों (कुरूप या सुघड़ दड़बों) में
दस्त-ए-नादीदा (अदृश्य हाथ) के इशारों पे चल रहे हैं
बिछी हुई है बिसात अज़ल (अनादि काल) से
बिछी हुई है बिसात जिस की न इब्तिदा है न इंतिहा है
बिसात (खेल की बाज़ी) ऐसा ख़ला (शून्य) है जो वुसअत-ए-तसव्वुर (कल्पना से) मावरा (परे) है
करिश्मा-ए-काएनात (सृष्टि का चमत्कार) क्या है
बिसात पर आते जाते मोहरों का सिलसिला है
बिसात साकित (चुप) है वक़्त-ए-मुतलक़ (सर्वोच्च)
बिसात बे-जुम्बिश (अचल) और बे-हिस (असंवेदन) है
अपने मोहरों से ला-तअल्लुक़ (सम्बंध) है
उस को इस से ग़रज़ नहीं है
कि कौन जीता है
और किस ने शिकस्त खाई
वजूद (अस्तित्व) हादिस (नया) वजूद मोहरे
बिसात-ए-साकित (बिसात/खेल बिछाने का कपड़ा) की वुस'अतों (क्षणों) में
ज़मीन अहल-ए-ज़मीन (धरती-वासी) अफ़्लाक (आसमान) अहल-ए-अफ़्लाक
अपनी अपनी मुअ'य्यना (पूर्व-निर्धारित) साअ'तों (समय) में ऐसे गुज़र रहे हैं
कि जैसे आँखों से ख़्वाब गुज़रें
बिसात पर जो भी है
वो होने की मोहलतों में असीर (बंदी)
पैहम (पहनावा) बदल रहा है
वजूद वो हिद्दत-ए-रवाँ (बहती हुई ऊर्जा) है
जो नित-नई हैअतों (रूपों) में बाक़ी है
और उस को फ़ना (विनाश) नहीं
जहाँ पहाड़ों के आसमाँ-बोस (गगन-चुम्बी) सिलसिले हैं
वहाँ कभी बहर (समुद्र) मौजज़न (प्रवाहित) थे
जहाँ बयाबाँ में रेत उड़ती है
बाद-ए-मस्मूम (विषैली हवा) गूँजती है
वहाँ कभी सब्ज़ा-ज़ार-ओ-गुल-गश्त (हरे भरे बाग़ में टहलने) का समाँ था
बुलंद-ओ-बाला (ऊँचे और बेहतर) हक़ीर-ओ-हेच (छोटे और छुद्र)
इस शिकस्त-ओ-ता'मीर (विनाश और सृजन) के तसलसुल (बहाव) में बह रहे हैं
शिकस्त-ओ-ता'मीर (विनाश और सृजन) के तसलसुल (बहाव) में तू है मैं हूँ
हम ऐसे मोहरे
जिन्हें इरादे दिए गए हैं
ये जन (अवाम) की तौफ़ीक़ (सामर्थ्य) पर हदें हैं
जिन्हें तमन्ना के रंग दिखला दिए गए हैं
मगर वसीलों (साधनों) पर क़दग़नें (प्रतिबंध)हैं
जिन्हें मोहब्बत के ढंग सिखला दिए गए हैं
प दस्त-ओ-पा (हाथ और पैर) में सलासिल-ए-नौ (नई जंज़ीरें) बनो
तो गर्दन में तौक़ (साँकल) पहना दिए गए हैं
जो है जो अब तक हुआ है जो हो रहा है
उस से किसे मफ़र है
कोई जो चाहे
कि अहद-ए-रफ़्ता (गुज़रे दिन) से एक पल फिर से लौट आए
कहा हुआ लफ़्ज़ अन-कहा हो सके
तो इस आरज़ू का हासिल वो जानता है
बहुत सही इख़्तियार-ओ-इम्काँ (नियंत्रण – सम्भावनाएँ)
बर्ग-ओ-ख़स (ख़स की पत्ती) की ताब-ओ-मजाल (ताक़त और हिम्मत) क्या है
नुमू-ए-ग़ुंचा (कली के उदय होने) में उस का अपना कमाल क्या है
तिरी निगाहों में तेरा ग़म कोह (पर्वत) से गिराँ-तर (ऊँचा) है
तू समझता है
तेरे सीने के सुर्ख़ लावे से
शहर-ओ-क़र्या (शहर – गाँव) पिघल रहे हैं
ख़िज़ाँ ज़मिस्ताँ (शीत ऋतु) तिरी उदासी के आइने हैं
तू मुश्तइ'ल (उत्तेजित) हो तो ज़लज़लों से ज़मीन काँपे
तुझे गुमाँ है
कि गुल खिले हैं तिरे तबस्सुम की पैरवी में
ये फूल को इख़्तियार कब था
कि कौन सी शाख़ पर खिले
कौन कुंज में मुस्कुराए
और किन फ़ज़ाओं में ख़ुशबुएँ बिखेरे
नहीफ़ (कोमल) शो'ला जमाल (सुंदरता) कोंपल
जो दस्त-ए-नाज़ुक (नर्म हाथों) की नर्म पोरों से धीरे धीरे
दरीचा-ए-शाख़ (शाख़ से दरार) खोल कर
सुब्ह की सफ़ेदी में झाँकती है
ये सोचती है
कि बाग़ सारा उसी के दम से महक रहा है
उसी के परतव (प्रतिबिम्ब) से गोशा गोशा (कोना कोना) दमक रहा है
उसी के दीदार में मगन
ख़ुशबुओं से बोझल हवाओं में
शोख़ तितलियाँ रक़्स (नृत्य) कर रही हैं
वो बे-ख़बर है
कि शातिर-ए-वक़्त (बेहद चालक वक़्त) की नज़र में
कोई इकाई
शजर (इंसान) हजर (वस्तु) हो कि ज़ी-नफ़्स (जीवित) हो
निज़ाम-ए-कुल (पूरे तंत्र) से अलग नहीं है
वो ये नहीं जानती कि हस्ती के कार-ख़ाने में
उस का होना न होना बे-नाम हादिसा है
और उस के हिस्से का कुल असासा (सम्पत्ति)
वो चंद लम्हे वो चंद साँसें हैं
जिन में वो ख़्वाब देखती है
सलीक़ा-ए-ज़ात (अपनी रीति) से चमन को सँवारने का
बहार-ए-जाँ (जीवन के वसंत) को निखारने का
~ ज़िया जालंधरी
Mar 22, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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