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Tuesday, November 24, 2020

वो चाँदनी रात और वो मुलाक़ात

 

वो चाँदनी रात और वो मुलाक़ात का आलम
क्या लुत्फ़ में गुज़रा है ग़रज़ रात का आलम

जाता हूँ जो मज्लिस में शब उस रश्क-ए-परी की
आता है नज़र मुझ को तिलिस्मात का आलम
*रश्क-ए-परी=परी से भी सुंदर

बरसों नहीं करता तू कभू बात किसू से
मुश्ताक़ ही रहता है तिरी बात का आलम
*मुश्ताक़=इच्छुक

कर मजलिस-ए-ख़ूबाँ में ज़रा सैर कि बाहम
होता है अजब उन के इशारात का आलम
*मजलिस-ए-ख़ूबाँ=सुंदर लोगों की बैठक;  बाहम=परस्पर

दिल उस का न लोटे कभी फूलों की सफ़ा पर
शबनम को दिखा दूँ जो तिरे गात का आलम
*सफ़ा=पवित्रता; गात=दाँव

हम लोग सिफ़ात उस की बयाँ करते हैं वर्ना
है वहम ओ ख़िरद से भी परे ज़ात का आलम
*सिफ़ात=तारीफ़(एं); ख़िरद-बिउद्धि; ज़ात=व्यक्तित्व

वो काली घटा और वो बिजली का चमकना
वो मेंह की बौछाड़ें वो बरसात का आलम

देखा जो शब-ए-हिज्र तो रोया मैं कि उस वक़्त
याद आया शब-ए-वस्ल के औक़ात का आलम
*शब-ए-हिज्र=विछोह की रात; शब-ए-वस्ल=मिलन की रात

हम 'मुसहफ़ी' क़ाने हैं ब-ख़ुश्क-ओ-तर-ए-गीती
है अपने तो नज़दीक मुसावात का आलम
*ब-ख़ुश्क-ओ-तर-ए-गीती=शुष्क और तर जीवन; मुसावात=बराबरी

~ मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

Nov 24, 2020| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
 

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