वो चाँदनी रात और वो मुलाक़ात का आलम
क्या लुत्फ़ में गुज़रा है ग़रज़ रात का आलम
जाता हूँ जो मज्लिस में शब उस रश्क-ए-परी की
आता है नज़र मुझ को तिलिस्मात का आलम
*रश्क-ए-परी=परी से भी सुंदर
बरसों नहीं करता तू कभू बात किसू से
मुश्ताक़ ही रहता है तिरी बात का आलम
*मुश्ताक़=इच्छुक
कर मजलिस-ए-ख़ूबाँ में ज़रा सैर कि बाहम
होता है अजब उन के इशारात का आलम
*मजलिस-ए-ख़ूबाँ=सुंदर लोगों की बैठक; बाहम=परस्पर
दिल उस का न लोटे कभी फूलों की सफ़ा पर
शबनम को दिखा दूँ जो तिरे गात का आलम
*सफ़ा=पवित्रता; गात=दाँव
हम लोग सिफ़ात उस की बयाँ करते हैं वर्ना
है वहम ओ ख़िरद से भी परे ज़ात का आलम
*सिफ़ात=तारीफ़(एं); ख़िरद-बिउद्धि; ज़ात=व्यक्तित्व
वो काली घटा और वो बिजली का चमकना
वो मेंह की बौछाड़ें वो बरसात का आलम
देखा जो शब-ए-हिज्र तो रोया मैं कि उस वक़्त
याद आया शब-ए-वस्ल के औक़ात का आलम
*शब-ए-हिज्र=विछोह की रात; शब-ए-वस्ल=मिलन की रात
हम 'मुसहफ़ी' क़ाने हैं ब-ख़ुश्क-ओ-तर-ए-गीती
है अपने तो नज़दीक मुसावात का आलम
*ब-ख़ुश्क-ओ-तर-ए-गीती=शुष्क और तर जीवन; मुसावात=बराबरी
~ मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
Nov 24, 2020| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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