फ़ैज़
को ग़ालिब का सच्चा उत्तराधिकारी समझा जाता है। इन दोनों की शायरी में,
जीवन की कोई भी ऐसी परिस्थिति नहीं होगी, जिसके लिए उपयुक्त शेर या भाव की
अभिव्यक्ति आपको न मिल सके। फ़ैज़ की बेहद मशहूर गजल, और एक कोशिश कि यह
बेहतरीन गज़ल आप सब तक इसके अनुवाद और अर्थ सहित पहुँचे:
गुलों मे रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
*बाद-ए-नौबहार=ताज़ा बसंत की बयार; गुलशन=बाग; कारोबार=काम-काज
##महबूबा से एक फ़रियाद है।
फूलों में रंग भरने शुरू हों, बसंत की ताज़ी नई हवा चलना शुरू करे, तुम यहाँ आ भी जाओ, एक ठहराव से निकल के बगीचे के रोज़मर्रा के काम तो शुरू हो सकें।
कफ़स उदास है यारों सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बह्र-ए-खुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले
*क़फ़स=पिंजरे (का क़ैदी - शायर); सबा=नर्म हवा; बहरे-खुदा=ईश्वर के लिए; ज़िक्रे-यार=प्रेयसी के बारे में बात
##इस शरीर रूपी पिंजरे का क़ैदी बहुत उदास है, कोई उपाय ऐसा निकले कि ये बंदी जीवन किसी तरह से जीने जैसा बन जाये। मेरे दोस्तों, कोई तो इस ठंडी बयार से कुछ कहो।
कहीं, किसी तरह, ईश्वर के लिए, मेरी प्रेयसी के बारे में कोई बात शुरू हो
कभी तो सुब्ह तेरे कुन्ज-ए-लब से हो आगाज़
कभी तो शब् सर-ए-काकुल से मुश्कबार चले
*आगाज़=शुरुआत; कुन्ज-ए-लब=होंठों (की मुस्कान या चुंबन); शब=रात; सरे-काकुल से मुश्कबार=ज़ुल्फों की कस्तूरी खुशबू
##कभी तो ऐसा हो कि सुबह तुम्हारे होंठो के हल्के स्पर्श या मुस्कान से शुरू हो या कभी रात तुम्हारे कस्तूरी खुशबू से महकती हुयी ज़ुल्फ़ों से मदमस्त हो जाये।
बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे, आयेंगे ग़मगुसार चले
*गमगुसार=दर्द बटाने वाले
##ये दर्द का रिश्ता भी अजीब है, बेवफ़ाई में सब कुछ लुटा देने के बाद भी तुम्हारा दुख बटाने के लिए, तुम्हारे नाम पर तुम्हारे सारे दीवाने चले आएंगे
जो हम पे गुज़री है सो गुज़री, मगर शब्-ए-हिज्राँ
हमारे अश्क तेरी आकबत संवार चले
*शब्-ए-हिज्राँ=वियोग की रातें; अश्क=आँसू; आक़बत=भविष्य, अगला जन्म
##जुदाई की रात तो हमने जैसे तैसे गुज़र कर ली,
लेकिन मेरे आँसू और उनमें निहित तुम्हारे लिए सद्भावना, ज़रूर तुम्हारा आने वाला कल संवार देंगे
हुजूर-ए-यार हुई दफ्तर-ए-जुनून की तलब
गिरह में ले के गरेबान का तार तार चले
*दफ्तर-ए-जुनून=प्रेमासक्ति दस्तावेज़; तलब=बुलावा; गिरह=गाँठ; गरेबान=सिले हुए कपड़े का वह अंश जो गले के चारों ओर पड़ता है
##प्रेयसी की प्रेम अदालत ने दीवानगी के कागजात की तलब की है, एक गाँठ में अपने फटे हाल हुये वज़ूद को बांध कर हम चल पड़े।
मक़ाम कोई फैज़ राह मे जचा ही नही
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले
*मक़ाम=जगह; कू-ए-यार=प्प्रियतमा की गली; सू-ए-दार=मौत या सूली की तरफ़
##प्रेयसी मे ऐसी आसक्ति हो गई है कि अब कोई और ठिकाना मन को भाता ही नहीं है अगर प्रियतमा कि गली नहीं है तो जीवन या मौत में कोई फरक नहीं है
~ फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़'
Jan 14, 2015 | e-kavya.blogspot.com
Ashok Singh
गुलों मे रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
*बाद-ए-नौबहार=ताज़ा बसंत की बयार; गुलशन=बाग; कारोबार=काम-काज
##महबूबा से एक फ़रियाद है।
फूलों में रंग भरने शुरू हों, बसंत की ताज़ी नई हवा चलना शुरू करे, तुम यहाँ आ भी जाओ, एक ठहराव से निकल के बगीचे के रोज़मर्रा के काम तो शुरू हो सकें।
कफ़स उदास है यारों सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बह्र-ए-खुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले
*क़फ़स=पिंजरे (का क़ैदी - शायर); सबा=नर्म हवा; बहरे-खुदा=ईश्वर के लिए; ज़िक्रे-यार=प्रेयसी के बारे में बात
##इस शरीर रूपी पिंजरे का क़ैदी बहुत उदास है, कोई उपाय ऐसा निकले कि ये बंदी जीवन किसी तरह से जीने जैसा बन जाये। मेरे दोस्तों, कोई तो इस ठंडी बयार से कुछ कहो।
कहीं, किसी तरह, ईश्वर के लिए, मेरी प्रेयसी के बारे में कोई बात शुरू हो
कभी तो सुब्ह तेरे कुन्ज-ए-लब से हो आगाज़
कभी तो शब् सर-ए-काकुल से मुश्कबार चले
*आगाज़=शुरुआत; कुन्ज-ए-लब=होंठों (की मुस्कान या चुंबन); शब=रात; सरे-काकुल से मुश्कबार=ज़ुल्फों की कस्तूरी खुशबू
##कभी तो ऐसा हो कि सुबह तुम्हारे होंठो के हल्के स्पर्श या मुस्कान से शुरू हो या कभी रात तुम्हारे कस्तूरी खुशबू से महकती हुयी ज़ुल्फ़ों से मदमस्त हो जाये।
बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे, आयेंगे ग़मगुसार चले
*गमगुसार=दर्द बटाने वाले
##ये दर्द का रिश्ता भी अजीब है, बेवफ़ाई में सब कुछ लुटा देने के बाद भी तुम्हारा दुख बटाने के लिए, तुम्हारे नाम पर तुम्हारे सारे दीवाने चले आएंगे
जो हम पे गुज़री है सो गुज़री, मगर शब्-ए-हिज्राँ
हमारे अश्क तेरी आकबत संवार चले
*शब्-ए-हिज्राँ=वियोग की रातें; अश्क=आँसू; आक़बत=भविष्य, अगला जन्म
##जुदाई की रात तो हमने जैसे तैसे गुज़र कर ली,
लेकिन मेरे आँसू और उनमें निहित तुम्हारे लिए सद्भावना, ज़रूर तुम्हारा आने वाला कल संवार देंगे
हुजूर-ए-यार हुई दफ्तर-ए-जुनून की तलब
गिरह में ले के गरेबान का तार तार चले
*दफ्तर-ए-जुनून=प्रेमासक्ति दस्तावेज़; तलब=बुलावा; गिरह=गाँठ; गरेबान=सिले हुए कपड़े का वह अंश जो गले के चारों ओर पड़ता है
##प्रेयसी की प्रेम अदालत ने दीवानगी के कागजात की तलब की है, एक गाँठ में अपने फटे हाल हुये वज़ूद को बांध कर हम चल पड़े।
मक़ाम कोई फैज़ राह मे जचा ही नही
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले
*मक़ाम=जगह; कू-ए-यार=प्प्रियतमा की गली; सू-ए-दार=मौत या सूली की तरफ़
##प्रेयसी मे ऐसी आसक्ति हो गई है कि अब कोई और ठिकाना मन को भाता ही नहीं है अगर प्रियतमा कि गली नहीं है तो जीवन या मौत में कोई फरक नहीं है
~ फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़'
Jan 14, 2015 | e-kavya.blogspot.com
Ashok Singh
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