तुमने ही मेरे प्राणों को जलने की रीति सिखाई है,
तुममें ही मेरे गीतों ने विश्वासमयी गति पाई है,
मेरे डूबे-डूबे मन का तुम ही तो ठौर-ठिकाना हो
मेरी आवारा आँखों ने तुमसे ही लगन लगाई है
काँटों से भरी विफलता में आधार न जीने का लूटो
मत टूटो ओ मेरे जीवन के संचित सपने मत टूटो!
तुमको मनुहारा करती है ये दर्दीली प्यासे मेरी
तुम तक न पहुँच क्या पाती है उत्पीड़ित अभिलाषें मेरी
मेरी संतप्त पुकारे तुमको अब तक पूज नहीं पाई
मेरी नश्वरता को क्या जीवन दे न सकीं सांसें मेरी
तुम रीते-रीते ही बीतो - मेरे सुख के घट मत फूटो
मत टूटो ओ मेरे जीवन के संचित सपने मत टूटो!
जीवन भर मैं पथ में भटका, तुमने मुझको खोने न दिया
अर्पण में भी असमर्थ रहा लेकिन तुमने रोने न दिया
मन में जैसी उत्कंठा थी वैसा तो जाग नहीं पाया
लेकिन तुमने क्षण-भर मुझको अपना होकर सोने न दिया
मत मंत्रित मन का दीप बुझा अंधियारी रजनी में छूटो
मत टूटो ओ मेरे जीवन के संचित सपने मत टूटो!
नभ में उग आया शुक्र नया, जीवन की आधी रात ढली
सब दिन सुख दुख में होड़ रही सब दिन पीड़ा में प्रीत पली
उतरी माला-सी सकुचाई मेरी ममता छाया-छल में
इस मध्य निशा में भोर छिपा, इसमें किरणों की बंद गली
कल्पित रस जी भर घूँट चुके अब जीवन के विष भी घूँटो
मत टूटो ओ मेरे जीवन के संचित सपने मत टूटो!
~ रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'
Oct 1, 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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