हो दोस्त या कि वह दुश्मन हो,
हो परिचित या परिचय विहीन
तुम जिसे समझते रहे बड़ा
या जिसे मानते रहे दीन
यदि कभी किसी कारण से
उसके यश पर उड़ती दिखे धूल,
तो सख्त बात कह उठने की
रे, तेरे हाथों हो न भूल।
मत कहो कि वह ऐसा ही था,
मत कहो कि इसके सौ गवाह,
यदि सचमुच ही वह फिसल गया
या पकड़ी उसने ग़लत राह-
तो सख्त बात से नहीं, स्नेह से
काम ज़रा लेकर देखो,
अपने अन्तर का नेह अरे,
देकर देखो।
कितने भी गहरे रहे गत',
हर जगह प्यार जा सकता है,
कितना भी भ्रष्ट ज़माना हो,
हर समय प्यार भा सकता है,
जो गिरे हुए को उठा सके
इससे प्यारा कुछ जतन नहीं,
दे प्यार उठा पाए न जिसे
इतना गहरा कुछ पतन नहीं।
देखे से प्यार भरी आँखें
दुस्साहस पीले होते हैं
हर एक धृष्टता के कपोल
आँसू से गीले होते हैं।
तो सख्त बात से नहीं
स्नेह से काम ज़रा लेकर देखो,
अपने अन्तर का नेह
अरे, देकर देखो।
तुमको शपथों से बड़ा प्यार,
तुमको शपथों की आदत है,
है शपथ गलत, है शपथ कठिन,
हर शपथ कि लगभग आफ़त है,
ली शपथ किसी ने और किसी के
आफत पास सरक आई,
तुमको शपथों से प्यार मगर
तुम पर शपथें छायीं-छायीं।
तो तुम पर शपथ चढ़ाता हूँ
तुम इसे उतारो स्नेह-स्नेह,
मैं तुम पर इसको मढ़ता हूँ
तुम इसे बिखेरो गेह-गेह।
हैं शपथ तुम्हें करुणाकर की
है शपथ तुम्हें उस नंगे की
जो भीख स्नेह की माँग-माँग
मर गया कि उस भिखमंगे की।
है सख़्त बात से नहीं
स्नेह से काम ज़रा लेकर देखो,
अपने अन्तर का नेह
अरे, देकर देखो।
~ भवानी प्रसाद मिश्र
Oct 27, 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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