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Saturday, October 7, 2017

गहन है यह अंधकारा

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गहन है यह अंधकारा
स्वार्थ के अवगुंठनों से
हुआ है लुंठन हमारा।

खड़ी है दीवार जड़ की घेर कर
बोलते हैं लोग ज्यों मुँह फेर कर
इस गहन में नहीं दिनकर
नहीं शशघर नहीं तारा।

कल्पना का ही अपार समुद्र यह
गरजता है घेर कर तनु रुद्र यह
कुछ नहीं आता समझ में
कहाँ है श्यामल किनारा।

प्रिय मुझे यह चेतना दो देह की
याद जिससे रहे वंचित गेह की
खोजता फिरता न पाता हुआ
मेरा हृदय हारा।

~ सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

  Oct 6, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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