प्रिये यह अनमनापन
और अपनी सब समस्याएं‚
उभरती भावनाओं से निरंतर
यह तनावों की धटाएं‚
प्रेम के निर्मल क्षितिज पर
क्यों अचानक छा गई हैं?
सुलझना इस समस्या का
नहीं बातों से अब संभव‚
चलो अब मूक नैनों को जुबां दें।
चलो अब तूल ना दें
इन धटाओं को‚
इसे खुद ही सिमटने दें।
उदासी के कुहासे में
बहुत दिन जी चुके हैं।
बहुत से अश्रु यूं चुपचाप
हम तुम पी चुके हैं।
चलो इन अश्रुओं को आज हम
निर्बाध बहने दें‚
नहीं इन को छुपाएं।
चलो इस छटपटाहट से
निकलने को‚
तनिक सा मुस्कुराएं!
∼ राजीव कृष्ण सक्सेना
Feb 16, 2018 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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