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Sunday, September 30, 2018

बहुत था ख़ौफ़ जिस का फिर वही

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बहुत था ख़ौफ़ जिस का फिर वही क़िस्सा निकल आया
मिरे दुख से किसी आवाज़ का रिश्ता निकल आया

वो सर से पाँव तक जैसे सुलगती शाम का मंज़र
ये किस जादू की बस्ती में दिल-ए-तन्हा निकल आया

जिन आँखों की उदासी में बयाबाँ साँस लेते हैं
उन्हीं की याद में नग़्मों का ये दरिया निकल आया
*बयाबाँ=जंगल

सुलगते दिल के आँगन में हुई ख़्वाबों की फिर बारिश
कहीं कोंपल महक उट्ठी कहीं पत्ता निकल आया

पिघल उठता है इक इक लफ़्ज़ जिन होंटों की हिद्दत से
मैं उन की आँच पी कर और भी सच्चा निकल आया
*हिद्दत=गर्मी

गुमाँ था ज़िंदगी बे-सम्त ओ बे-मंज़िल बयाबाँ है
मगर इक नाम पर फूलों-भरा रस्ता निकल आया
*बे-सम्त=दिशाहीन

~ बशर नवाज़


  Sep 30, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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