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Sunday, September 16, 2018

गुज़र रहे हैं शब ओ रोज़

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गुज़र रहे हैं शब ओ रोज़ तुम नहीं आतीं
रियाज़-ए-ज़ीस्त है आज़ुरदा-ए-बहार अभी
मिरे ख़याल की दुनिया है सोगवार अभी
जो हसरतें तिरे ग़म की कफ़ील हैं प्यारी 


अभी तलक मिरी तन्हाइयों में बस्ती हैं
तवील रातें अभी तक तवील हैं प्यारी
उदास आँखें तिरी दीद को तरसती हैं
बहार-ए-हुस्न पे पाबंदी-ए-जफ़ा कब तक
ये आज़माइश-ए-सब्र-ए-गुरेज़-पा कब तक 


क़सम तुम्हारी बहुत ग़म उठा चुका हूँ मैं
ग़लत था दावा-ए-सब्र-ओ-शकेब आ जाओ
क़रार-ए-ख़ातिर-ए-बेताब थक गया हूँ मैं

*रियाज़-ए-ज़ीस्त=ज़िंदगी जीने का अभ्यास; आज़ुरदा-ए-बहार=बहार से पीड़ित; सोगवार=उदास; कफ़ील=जमानतदार; तवील=लम्बी

*दीद=दर्शन; ज़फ़ा=ज़ुल्म; गुरेज़-पा=छलावा; सब्र-ओ-शकेब=धीरज व सहन-शक्ति

~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


  Sep 16, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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