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Friday, September 7, 2018

तेरे घर के द्वार बहुत हैं


तेरे घर के द्वार बहुत हैं,
किसमें हो कर आऊं मैं?
सब द्वारों पर भीड़ मची है,
कैसे भीतर जाऊं मैं?

द्वारपाल भय दिखलाते हैं,
कुछ ही जन जाने पाते हैं,
शेष सभी धक्के खाते हैं,
क्यों कर घुसने पाऊं मैं?

तेरी विभव कल्पना कर के,
उसके वर्णन से मन भर के,
भूल रहे हैं जन बाहर के
कैसे तुझे भुलाऊं मैं?

बीत चुकी है बेला सारी,
किंतु न आयी मेरी बारी,
करूँ कुटी की अब तैयारी,
वहीं बैठ गुन गाऊं मैं।

कुटी खोल भीतर जाता हूँ
तो वैसा ही रह जाता हूँ
तुझको यह कहते पाता हूँ-
‘अतिथि, कहो क्या लाउं मैं?

तेरे घर के द्वार बहुत हैं,
किसमें हो कर आऊं मैं?

~ मैथिलीशरण गुप्त


  Sep 7, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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