समुंदर चाँदनी में रक़्स करता है
परिंदे बादलों में छुप के कैसे गुनगुनाते हैं
ज़मीं के भेद जैसे चाँद तारों को बताते हैं
हवा सरगोशियों के जाल बुनती है
तुम्हें फ़ुर्सत मिले तो देखना;
लहरों में इक कश्ती है
और कश्ती में इक तन्हा मुसाफ़िर है
मुसाफ़िर के लबों पर वापसी के गीत
लहरों की सुबुक-गामी में ढलते
दास्ताँ कहते
जज़ीरों में कहीं बहते
पुराने साहिलों पर गूँजते रहते
किसी माँझी के नग़्मों से गले मिल कर पलटते हैं
तुम्हारी याद का सफ़्हा उलटते हैं
अभी कुछ रात बाक़ी है
तुम्हारा और मेरा साथ बाक़ी है
अंधेरों में छुपा इक रौशनी का हाथ बाक़ी है
चले आना
कि हम उस आने वाली सुब्ह को इक साथ देखेंगे
*रक़्स=नृत्य; सरगोशी=कानाफूसी; सुबुक-गामी=तेज़ी से; जज़ीरों=द्वीपों; सफ़्हा=पन्ना
~ सलीम कौसर
Sep 15, 2018 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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