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Saturday, September 8, 2018

मुझे ख़्वाब अपना अज़ीज़ था

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मुझे ख़्वाब अपना अज़ीज़ था
सो मैं नींद से न जगा कभी
मुझे नींद अपनी अज़ीज़ है
कि मैं सर-ज़मीन पे ख़्वाब की
कोई फूल ऐसा खिला सकूँ
कि जो मुश्क बन के महक सके
कोई दीप ऐसा जला सकूँ
जो सितारा बन के दमक सके

*मुश्क= इत्र, हिरन की नाभि में छुपी हुई ख़ुशबू

मिरा ख़्वाब अब भी है नींद में
मिरी नींद अब भी है मुंतज़िर
कि मैं वो करिश्मा दिखा सकूँ
कहीं फूल कोई खिला सकूँ
कहीं दीप कोई जला सकूँ

*मुंतज़िर=इंतज़ार में

~ बशर नवाज़


  Sep 8, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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