रोज़-ओ-शब
हल्क़ा-ए-आफ़ात हैं
हर लहज़ा जवाँ
सिलसिला वक़्त की गर्दिश का यहाँ
सब हैं पाबंदी-ए-औक़ात-ए-ज़माना में मगन
जान-ओ-तन फ़हम-ओ-ख़िरद होश-ओ-गुमाँ
तुम ही तन्हा नहीं इस सैल-ए-रवाँ में मजबूर
मैं भी जीती हूँ यहाँ ख़ुद से गुरेज़ाँ हो कर
*रोज़-ओ-शब=दिन और रात; हल्क़ा-ए-आफ़ात=विषम चक्र; पाबंदी-ए-औक़ात-ए-ज़माना=सम
फिर भी इक लम्हे की फ़ुर्सत जो मयस्सर आए
दिल वहीं चुपके से धड़कन को जगा देता है
तार-रातों में बिखरती हैं रुपहली किरनें
चाँदनी पिछली मुलाक़ातों के आईने में
रोज़-ए-आइंदा से मिलती है गले
*मयस्सर=प्राप्त; रोज़-ए-आइंदा=आने वाले दिन
कहती है
अन-कही बातों की ख़ुश्बू से मोअ'त्तर रखना
अपनी आवाज़ अभी
ज़िंदगी कितनी ही बे-मेहर सहमी
फिर भी बहार आएगी
आँखों में बसाए रखना मेरे अंदाज़ अभी
*मोअत्तर=ख़ुशबू से भरा हुआ; बे-मेहर=प्रेम विहीन
~ माह तलअत ज़ाहिदी
Jan 29, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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