किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l
बड़े-बड़े घरों के कचरे पर डोल रहीं,
पता नहीं कहाँ-कहाँ गंदे पर खोल रहीं,
हर अपाच्य पाच्य इन्हें,
ऐसी हैं प्रचुरगियाँ l
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l
साहस है, आपस में लड़ना हैं जानतीं,
हैं स्वतन्त्र, दरबे को मात्र कवच मानतीं,
गूदा सब उतर गया,
दीख रही चियाँ-चियाँ l
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l
जिसकी ऊँची कलगी सब उसके साथ लगीं,
उसकी ही चमक-दमक के हैं अनुराग-रँगी,
अंडे कितने देंगी
जोड़ रहे बैठ मियाँ l
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l
~ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
Feb 03, 2015 | e-kavya.blogspot.com
Ashok Singh
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