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Wednesday, February 4, 2015

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ

Photo: किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l 

बड़े-बड़े घरों के कचरे पर डोल रहीं,
पता  नहीं कहाँ-कहाँ गंदे पर खोल रहीं,
हर अपाच्य पाच्य इन्हें,
ऐसी हैं प्रचुरगियाँ l 

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l 

साहस  है, आपस में लड़ना हैं जानतीं,
हैं स्वतन्त्र, दरबे को मात्र कवच मानतीं,
गूदा सब उतर गया,
दीख रही चियाँ-चियाँ l 

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l 

जिसकी ऊँची कलगी सब उसके साथ लगीं,
उसकी ही चमक-दमक के हैं अनुराग-रँगी,
अंडे कितने देंगी 
जोड़ रहे बैठ मियाँ l 

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ 
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l 

~ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l

बड़े-बड़े घरों के कचरे पर डोल रहीं,
पता नहीं कहाँ-कहाँ गंदे पर खोल रहीं,
हर अपाच्य पाच्य इन्हें,
ऐसी हैं प्रचुरगियाँ l

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l

साहस है, आपस में लड़ना हैं जानतीं,
हैं स्वतन्त्र, दरबे को मात्र कवच मानतीं,
गूदा सब उतर गया,
दीख रही चियाँ-चियाँ l

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l

जिसकी ऊँची कलगी सब उसके साथ लगीं,
उसकी ही चमक-दमक के हैं अनुराग-रँगी,
अंडे कितने देंगी
जोड़ रहे बैठ मियाँ l

किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
किड़-किड़ -किड़ कियाँ कियाँ
दरबे से निकली हैं,
पढ़ी-लिखी मुर्गियाँ l

~ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना


   Feb 03, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

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