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Saturday, February 7, 2015

प्राणों के पाहुन आए औ' लौट चले



Posted by Ashok Singh
14 mins ·

प्राणों के पाहुन आए औ' चले गए इक क्षण में
हम उनकी परछाईं ही से छले गए इक क्षण में l

कुछ गीला-सा, कुछ सीला-सा अतिथि-भवन जर्जर-सा
आँगन में पतझर के सूखे पत्तों का मर्मर-सा,
आतिथेय के रुद्ध कंठ में स्वागत का घर्घर-सा,
यह स्थिति लखकर अकुलाहट हो क्यों न अतिथि के मन में ?
प्राणों के पाहुन आए औ' लौट चले इक क्षण में l

शून्य अतिथिशाळा यह हमने रच-पच क्यों न बनाई ?
जंग को अपनी शिल्प-चातुरी हमने क्यों न जनाई ?
उनके चरणागमन-स्मरण में हमने उमर गँवाई ;
अर्घ्य-दान कर कीच मचा दी हमने अतिथि-सदन में ;
प्राणों के पाहुन आए औ' लौट पड़े इक क्षण में l

वे यदि रंच पूछते : क्यों है अतिथि-कक्ष यह सीला ?
वे यदि तनिक पूछते : क्यों है स्फुरित वक्ष यह गीला ?
तो हो जाता ज्ञात उन्हें : है यह उनकी ही लीला ;
है पंकिलता आज हमारी माटी के कण-कण में,
प्राणों के पाहुन आए औ' लौट चले इक क्षण में l

अतिथि निहारें आज हमारी रीती पतझड़-बेला,
आज दृगों में निपट दुर्दिनों का है जमघट-मेला ;
झड़ी और पतझड़ से ताड़ित जीवन निपट अकेला ;
हम खोए-से खड़े हुए हैं एकाकी आँगन में,
प्राणों के पाहुन आए औ' लौट चले इक क्षण में l

~ बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'


   Feb 07, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

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