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Thursday, February 5, 2015

एक सितम और मेरी जाँ अभी जाँ बाक़ी है



दिल में अब तक तेरी उल्फ़त का निशाँ बाक़ी है

जुर्म-ए-तौहीन-ए-मोहब्बत की सज़ा दे मुझको
कुछ तो महरूम-ए-उल्फ़त का सिला दे मुझको
जिस्म से रूह का रिश्ता नहीं टूटा है अभी
हाथ से सब्र का दामन नहीं छूटा है अभी
अभी जलते हुये ख़्वाबों का धुंआ बाक़ी है
* महरूम-ए-उल्फ़त का सिला=प्रेम से दूर रखने की सज़ा; रूह=आत्मा

अपनी नफ़रत से मेरे प्यार का दामन भर दे
दिल-ए-गुस्ताख़ को महरूम-ए-मोहब्बत कर दे
देख टूटा नहीं चाहत का हसीन ताजमहल
आ के बिखरे नहीं महकी हुयी यादों के कँवल
अभी तक़दीर के गुलशन में ख़िज़ा बाकी है
*कँवल=फूल; ख़िज़ा=पतझड़

एक सितम और मेरी जाँ अभी जाँ बाक़ी है
दिल में अबतक तेरी उल्फ़त का निशाँ बाक़ी है

~ मसरूर अनवर


   Feb 05, 2015 | e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

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