
अब मिरे शाने(कंधे) से लग कर किस लिए रोती हो तुम!
याद है तुम ने कहा था
“जब निगाहों में चमक हो
लफ़्ज़ जज़्बों(भावों) के असर से काँपते हों, और
तनफ़्फ़ुस(साँस) इस तरह उलझें कि जिस्मों की थकन ख़ुश्बू बने,
तो वो घड़ी अहद-ए-वफ़ा(वफ़ा के वादा) की साअत-ए-नायाब(बेहतरीन क्षण) है
वो जो चुपके से बिछड़ जाते हैं लम्हें हैं मसाफ़त(यात्रा)
जिन की ख़ातिर पाँव पर पहरे बिठाती है
निगाहें धुंध के पर्दों में उनको ढूँढती हैं
और समाअत(सुन सकना) उन की मीठी नर्म आहट के लिए
दामन बिछाती है”
और वो लम्हा भी तुमको याद होगा
जब हवाएँ सर्द थीं, और शाम के मैले कफ़न पर हाथ रख कर
तुम ने लफ़्जों और तअल्लुक के नए मअ’नी बताए थे, कहा था
“हर घड़ी अपनी जगह पर साअत-ए-नायाब(बेहतरीन क्षण) है
हासिल-ए-उम्र–ए-गुरेजाँ(गुज़री उम्र से हासिल हुआ) एक भी लम्हा नहीं
लफ़्ज़ धोका हैं कि उन का काम इबलाग़-ए-मआनी(सूचित करने) के अलावा कुछ नहीं
वक़्त मअ’नी है जो हर लहज़ा नए चेहरे बदलता है
जाने वाला वक़्त साया है
की जब तक जिस्म है ये आदमी के साथ चलता है
याद मिस्ल-ए-नुत्क़(संवाद) पागल है कि इस के लफ़्ज़ मअ’नी से तही(खाली) हैं
ये जिसे तुम ग़म अज़िय्यत(तकलीफ) दर्द आँसू
दुख वगैरह कह रहे हो
एक लम्हाती तअस्सुर(दिखावा) है, तुम्हारा वहम है
तुम को मेरा मशविरा है, भूल जाओ तुम से अब तक
जो भी कुछ मैंने कहा है”
अब मिरे शाने से लग कर किस लिए रोती हो तुम!
~ अमजद इस्लाम अमजद
May 07, 2015| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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