
न जी भर के देखा न कुछ बात की,
बड़ी आरज़ू थी, मुलाक़ात की ।
उजालों की परियाँ नहाने लगीं,
नदी गुनगुनाई, ख़यालात की ।
मैं चुप था तो चलती हवा रुक गई,
ज़ुबाँ सब समझते हैं, जज़्बात की ।
मुक़द्दर मिरी चश्म-ए-पुरआब का,
बरसती हुई रात, बरसात की।
*चश्म-ए-पुरआब=आँसू भरी आँखें
कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं,
कहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात की ।
~ बशीर बद्र
May 29, 2013 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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