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Monday, June 15, 2015

सामने ग़म की रहगुज़र आई


सामने ग़म की रहगुज़र आई
दूर तक रोशनी नज़र आई

परबतों पर रुके रहे बादल
वादियों में नदी उतर आई

दूरियों की कसक बढ़ाने को
साअते-क़ुर्ब मख़्तसर आई
*साअते-क़ुर्ब=सामीप्य की घड़ी; मुख़्तसर=संक्षिप्त

दिन मुझे क़त्ल करके लौट गया
शाम मेरे लहू में तर आई

मुझ को कब शौक़े-शहरगर्दी थी
ख़ुद गली चल के मेरे घर आई
*शौक़े-शहरगर्दी=नगर में घूमने का शौक़

आज क्यूँ आईने में शक्ल अपनी
अजनबी-अजनबी नज़र आई

हम की 'मख़्मूर' सुबह तक जागे
एक आहट की रात भर आई

~ मख़्मूर सईदी


  Jun 15, 2015 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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