सामने ग़म की रहगुज़र आई
दूर तक रोशनी नज़र आई
परबतों पर रुके रहे बादल
वादियों में नदी उतर आई
दूरियों की कसक बढ़ाने को
साअते-क़ुर्ब मख़्तसर आई
*साअते-क़ुर्ब=सामीप्य की घड़ी; मुख़्तसर=संक्षिप्त
दिन मुझे क़त्ल करके लौट गया
शाम मेरे लहू में तर आई
मुझ को कब शौक़े-शहरगर्दी थी
ख़ुद गली चल के मेरे घर आई
*शौक़े-शहरगर्दी=नगर में घूमने का शौक़
आज क्यूँ आईने में शक्ल अपनी
अजनबी-अजनबी नज़र आई
हम की 'मख़्मूर' सुबह तक जागे
एक आहट की रात भर आई
~ मख़्मूर सईदी
Jun 15, 2015 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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