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Thursday, June 4, 2015

कभी किसी बाग़ के किनारे



कभी किसी बाग़ के किनारे
उगे हुये पेड़ के सहारे
मुझे मिली हैं वो मस्त आँखें
जो दिल के पाताल में उतर कर
गये दिनों की गुफ़ा में झाँकें

कभी किसी अजनबी नगर में
किसी अकेले उदास घर में
परीरुख़ों की हसीं सभायें
कोई बहार-ए-गुरेज़ पायें

*परीरुख़ों=बहुत ख़ूबसूरत; गुरेज़=पलायन

कभी सर-ए-रह सर-ए-कू
कभी पस-ए-दर कभी लब-ए-जू
मुझे मिली हैं वही निगाहें
जो एक लम्हे की दोस्ती में
हज़ार बातों को कहना चाहें

*सर-ए-रह=राह, पथ; सर-ए-कू=आम गली
पस-ए-दर=दरवाज़े के पीछे; लब-ए-जू=पानी के किनारे

~ मुनीर नियाज़ी


  Jun 04, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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