Disable Copy Text

Monday, July 20, 2015

तुम भी गाती रहो,मैं भी गाता रहूँ



छा न जाएं शहर पे ये ख़ामोशियाँ
तुम भी गाती रहो,मैं भी गाता रहूँ

ये शहर था हमारे लिए अजनबी
एक तुम जो मिली तो ख़ुशी ही ख़ुशी
अब ख़ुदा से हमें और क्या माँगना
तुम मेरी ’मेनका’ तुम मेरी ’उर्वशी’
लिख सको तो मिलन गीत ऐसा लिखो
उम्र भर मैं जिसे गुनगुनाता रहूँ

लोग आते यहाँ अपने सपने लिए
एक मक़सद लिए ज़िन्दगी के लिए
सबको जल्दी पड़ी ,सबको अपनी पड़ी
कोई रुकता नहीं दूसरों के लिए
थक न जाओ कहीं चलते चलते यहाँ
अपनी पलकों पे तुम को बिठाता रहूँ

भीड़ का एक समन्दर हुआ है शहर
किसकी मंज़िल किधर और जाता किधर
जिसको साहिल मिला वो सफल हो गया
किसकी डूबी है कश्ती किसे है ख़बर
इस शहर में कहीं राह भटको न तुम
प्रेरणा का दिया मैं जलाता रहूँ

हर गली मोड़ पे होती दुश्वारियाँ
जब निगाहें ग़लत चीरती है बदन
ज़िन्दगी के सफ़र में हो तनहाईयां
ढूँढती है वहीं दो बदन-एक मन
सर टिका दो अगर मेरे कांधे से तुम
आशियाँ एक अपना बनाता रहूँ

~ आनन्द पाठक


   Jul 19, 2015| e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

No comments:

Post a Comment