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Monday, July 13, 2015

सपनों का संसार खोजने



सपनों का संसार खोजने
अब सुधियों के देश चलेंगे
महानगर में सपने अपने
धू-घू करते रोज जलेंगे
शापों का संत्रास झेलते
पूरा का पूरा युग बीता
शुभाशीष का एक कटोरा
अब तक है रीता का रीता
पीड़ाओं के शिलाखण्डत ये
जाने किस युग में पिघलेंगे।

यहाँ रहे तो कट जाएगी
सुधियों की यह डोर एक दिन
खो देंगे पतंग हम अपनी
नहीं दिखेगा छोर एक दिन,
नदी नहीं रेत ही रेत है
तेज धूप है पाँव जलेंगे।
खेतों की मेंड़ों पर दहके-
होंगे स्वाेगत में पलास भी
छाँव लिए द्वारे पर अपने
बैठा होगा अमलतास भी
धूल,धुँए,धूप के नगाड़े
हमें देखते हाथ मलेंगे।
हाथों का दम ले आएगा
पर्वत से झरना निकाल कर
सीख लिया है जीना हमनें
संत्रासों को भी उछालकर
मुस्कासनों के झोंके होंगे
जिन गलियों से हम निकलेंगे।
अपने मन के महानगर में
तुलसी के चौरे हरियाए
सुबह-शाम आरती हुई है
सबने घी के दीप जलाए
मानदण्ड शुभ सुन्दईरता के
मेरी बस्ती से निकलेंगे।

~ राजा अवस्थी

   Jul 13, 2015| e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

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