दीवारों से मिलकर रोना अच्छा लगता है
हम भी पागल हो जायेंगे ऐसा लगता है
कितने दिनों के प्यासे होंगे यारों सोचो तो
शबनम का क़तरा भी जिनको दरिया लगता है
आँखों को भी ले डूबा ये दिल का पागल-पन
आते जाते जो मिलता है तुम सा लगता है
इस बस्ती में कौन हमारे आँसू पोंछेगा
जो मिलता है उस का दामन भीगा लगता है
दुनिया भर की यादें हम से मिलने आती हैं
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है
किसको पत्थर मारूँ 'क़ैसर' कौन पराया है
शीश-महल में इक इक चेहरा अपना लगता है
~ क़ैसर-उल जाफ़री
Jul 26, 2015| e-kavya.blogspot.com
Ashok Singh

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