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Sunday, July 26, 2015

दीवारों से मिलकर रोना


दीवारों से मिलकर रोना अच्छा लगता है
हम भी पागल हो जायेंगे ऐसा लगता है

कितने दिनों के प्यासे होंगे यारों सोचो तो
शबनम का क़तरा भी जिनको दरिया लगता है

आँखों को भी ले डूबा ये दिल का पागल-पन
आते जाते जो मिलता है तुम सा लगता है

इस बस्ती में कौन हमारे आँसू पोंछेगा
जो मिलता है उस का दामन भीगा लगता है

दुनिया भर की यादें हम से मिलने आती हैं
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है

किसको पत्थर मारूँ 'क़ैसर' कौन पराया है
शीश-महल में इक इक चेहरा अपना लगता है

~ क़ैसर-उल जाफ़री


   Jul 26, 2015| e-kavya.blogspot.com
   Ashok Singh

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