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Thursday, June 2, 2016

ज़रा सी रौशनी महदूद कर दो

ज़रा सी रौशनी महदूद कर दो
अंधेरों को दिया खलता बहुत है
*महदूद=हद के भीतर

गिले मुझसे हैं उसको बात दीगर
मुझे उसने कहीं चाहा बहुत है
*दीगर=और


वो मेरा दोस्त है ये सच है लेकिन
वो तारीफें मेरी करता बहुत है

ये चोटें ऊपरी दिखती हैं यूँ तो
वो अंदर तक कहीं टूटा बहुत है

~ मौनी गोपाल 'तपिश'

May 16, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

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