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Friday, November 10, 2017

मिरे वहम-ओ-गुमाँ से


मिरे वहम-ओ-गुमाँ से भी ज़ियादा टूट जाता है
ये दिल अपनी हदों में रह के इतना टूट जाता है
*सनक और काल्पनिक

मैं रोऊँ तो दर-ओ-दीवार मुझ पर हँसने लगते हैं
हँसूँ तो मेरे अंदर जाने क्या क्या टूट जाता है
*दर=दरवाज़ा

मैं जिस लम्हे की ख़्वाहिश में सफ़र करता हूँ सदियों का
कहीं पाँव-तले आ कर वो लम्हा टूट जाता है

मिरे ख़्वाबों की बस्ती से जनाज़े उठते जाते हैं
मिरी आँखें जिसे छू लें वो सपना टूट जाता है

न जाने कितनी मुद्दत से है दिल में ये अमल जारी
ज़रा सी ठेस लगती है ज़रा सा टूट जाता है
*अमल=काम

दिल-ए-नादाँ हमारी तो नुमू ही ना-मुकम्मल थी
तो हैरत क्या जो बनते ही इरादा टूट जाता है
*नुमू=बढ़त; ना-मुकम्मल=अधूरी

मुक़द्दर में मिरे 'सागर' शिकस्त-ओ-रेख़्त इतनी है
मैं जिस को अपना कह दूँ वो सितारा टूट जाता है
*शिकस्त-ओ-रेख़्त=बनना और बिगड़ना

~ सलीम साग़र

  Nov 6, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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