मेरे पाँव तुम्हारी गति हो
फिर चाहे जो भी परिणति हो
*परिणति= किसी प्रकार के परिवर्तन के कारण बननेवाला नया रूप
कोई चलता कोई थमता
दुनिया तो सडकों का मेला
जैसे कोई खेल रहा हो
सीढ़ी और साँप का खेला
मेरे दाँव तुम्हारी मति हो
फिर चाहे जय हो या क्षति हो
पल-पल दिखते पल-पल ओझल
सारे सफर पडावों के छल
जैसे धूप तले मरुथल में
हर प्यासे के हिस्से मृगजल
मेरे नयन तुम्हारी द्युति हो
फिर कोई आकृति अनुकृति हो
*आकृति=स्वरूप; अनुकृति= किसी वस्तु की हूबहू नक़ल
क्या राजाघर क्या जलसाघर
मैं अपनी लागी का चाकर
जैसे भटका हुआ पुजारी
ढूँढ रहा अपना पूजाघर
मेरे प्राण तुम्हारी रति हो
फिर कैसी भी सुरति-निरति हो
*सुरति=युगल का वह प्रेम जो शारीरिक सम्बंध की तृप्ति से उत्पन्न होता है; निरति= आसक्ति
ये सन्नाटे ये कोलाहल
कविता जन्मे साँकल-साँकल
जैसे दावानल में हँस दे
कोई पहली-पहली कोंपल
मेरे शब्द तुम्हारी श्रुति हो
यह मेरी अन्तिम प्रतिश्रुति हो
*श्रुति=सुनने की क्रिया; प्रतिश्रुति=प्रतिध्वनि
~ तारा प्रकाश जोशी
Nov 10, 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

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