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Sunday, November 12, 2017

देखो, चली जाए न यों ढलकर



देखो,
चली जाए न यों ढलकर।

थमाओ हाथ, बाहर घास ने
कालीन डाला है,
किरन ने कुनकुने जलसे
अभी तो मुँह उजाला है,
हवाएँ यों निकल जाएँ न
हम दो बात तो कर लें,
खिली है ऋतु सुहानी
आँजुरी में, फूल कुछ भर लें।
लताओं से विटप की,
अनकही बातें सुनें चलकर!

पुलकते तट, उठी लहरें
सिमट कर बाँह में सोई,
कमल-दल फूल कर महके
मछलियाँ डूब कर खोई,
लिखी अभिसार की गाथा
कपोती ने मुँडेली पर,
मदिर मधुमास लेकर
घर गई सरसों- हथेली पर।
महकता है कहीं महुआ
किसी, कचनार में घुलकर।

उलझती ऊन सुलझा कर
नया स्वेटर बनाओ तुम,
बिखरते गीत के
खोए हुए-फिर बंध जोड़े हम,
बहुत दिन हो गए हैं
डूब कर जीना नहीं जाना,
कभी तुमने कभी हमने
कोई मौसम नहीं माना।
बहे फिर प्यार की इस
उष्णता में कुहरिका गलकर!

~ यतीन्द्र राही


  Nov 12, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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