इतना दूर मुझे मत कर दो
लौटूँ तो पहचान न पाओ।
तन की दूरी दूरी मन की
अग्नि से इच्छा अग्नि शमन की
ध्वनियों की व्याकुलता से ही
उभरी हैं ध्वनियाँ निर्जन की
इतना मान नहीं रखना मन
लोगों से सम्मान न पाओ।
स्वयं से बढ़ के स्वयं से छोटा
सागर बनना बनना लोटा
सपनों ने विस्तार दिए हैं
सपनों ने ही हमें कचोटा
इतना ज्ञान न अर्जित करना
ख़ुद को ही तुम छान न पाओ।
गोद में सुख है गोद में दुख है
गोद का अपना भी एक रुख है
निर्भर करता सफ़र इसी पर
आमुख क्या है क्या सम्मुख है
इतना ऊँचा भी मत होना
नमी ओस की जान न पाओ।
~ देवेन्द्र आर्य
Nov 5, 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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