ख़्वाबों से तही (खाली) बे-नूर आँखें
हर शाम नए मंज़र चाहें
बेचैन बदन प्यासी रूहें
हर आन नए पैकर (शरीर) चाहें
बेबाक लहू
अन-देखे सपनों की ख़ातिर
जाने अनजाने रस्तों पर
कुछ नक़्श (निशान) बनाना चाहता है
बंजर पामाल (रौंदी) ज़मीनों में
कुछ फूल खिलाना चाहता है
यूँ नक़्श कहाँ बन पाते हैं
यूँ फूल कहाँ खिलने वाले
इन बदन-दरीदा (फटे हाल बदन) रूहों के
यूँ चाक (फटे हुए) कहाँ सिलने वाले
बेबाक लहू को हुर्मत (इज़्ज़त) के आदाब सिखाने पड़ते हैं
तब मिट्टी मौज में आती है
तब ख़्वाब के म'अनी बनते हैं
तब ख़ुशबू रंग दिखाती है
~ इफ़्तेख़ारआरिफ़
Aug 16, 2019 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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