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Saturday, August 17, 2019

ज़िंदगी घबरा गई है

 
जिस्म का जस, रूप का रस, काम का कस
ज़िंदगी की ये सुहानी धूप बहलाती रही है मेरे मन को
ख़ूब गरमाती रही है, आरज़ूओं की पवन को
और चमकाती रही है अपने-पन को

*जस=उत्कृष्टता; रस=मर्म, तत्व; कस=दुराग्रह, सख़्त पकड़

दे के इक नश्शा नयन को
लज्जतों में डूब कर भी
मैं उभरता ही रहा हूँ
सोच की बे-ताब लहरें ज़ेहन में रक़्साँ रही हैं

*लज्जत=स्वादिष्ट पन; रक़्साँ=नृत्य करती

लेकिन अब तो इक उदासी छा गई है
सोच की शाम आ गई है
ज़िंदगी घबरा गई है

~ कृष्ण मोहन

 Aug 17, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

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