माँ को समर्पित, जिनके लिये हर दिन माँ का दिन है:
कभी मस्जिद,कभी गिरजा कभी मन्दिर शिवाले से,
दुआ की बरकतें पाता हूँ माँ के हर निवाले से।
कम अज़ कम एहतियातन, मैं वज़ू तो कर ही लेता हूँ,
कभी जो शेर पढ़ना हो, मुझे माँ के हवाले से।
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शब के दामन से सहर, कोई उजाली जाये,
ज़िन्दगी जीने की अब, राह निकाली जाय।
हमको दौलत मिली,इज्ज़त मिली शोहरत भी मिली,
अब ज़रूरी है बहुत माँ की दुआ ली जाये।
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छाँव मिले जो उसके,रेशमी आँचल की,
ख़ाक जुनून-ए -इश्क,न छाने जंगल की।
अल्ला अल्ला सिलवट,माँ के आँचल की,
हर इक मौज लगे,मुझको गंगा जल की।
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अपनी साँसों में मेरी, धड़कनें समाये हुए,
वजूद अपना ही खुद, दाँव पे लगाये हुए।
सँभल सँभल के क़दम,वो ज़मीं पे रखती थी,
मुझ को नौ माह तक,माँ कोख में छुपाये हुए।
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दुआयें साथ रोज-ओ-शब हैं, माँ के आस्ताने की,
मसर्रत और शोहरत है, जिन्हें हासिल ज़माने की।
बहुत बेख़ौफ़ होकर उम्र भर बेटों" ने लूटा है,
मगर बरकत कभी घटती, नहीं माँ के ख़ज़ाने की।
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नज़र आता है लाफ़ानी,असर माँ की बदौलत ही,
दवा से कुछ नहीं होता,दुआयें काम आती हैं।
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दुआयें दे के मेरी, आक़िबत सँवारती है,
बलायें ले के माँ, मेरी नज़र उतारती है
वो मेरी फ़िक्र में, दिन रात जागकर `सागर',
मेरे वजूद की हर, शय को माँ निखारती है।
~ सागर त्रिपाठी
May 10, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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