ज़रा सी चोट लगी थी कि चलना भूल गए
शरीफ़ लोग थे घर से निकलना भूल गए
तिरी उमीद पे शायद न अब खरे उतरें
हम इतनी बार बुझे हैं कि जलना भूल गए
तुम्हें तो इल्म था बस्ती के लोग कैसे हैं
तुम इस के बा'द भी कपड़े बदलना भूल गए
हमें तो चाँद सितारों को रुस्वा करना था
सो जान-बूझ के इक रोज़ ढलना भूल गए
'हसीब'-सोज़ जो रस्सी के पुल पे चलते थे
पड़ा वो वक़्त कि सड़कों पे चलना भूल गए
~ हसीब सोज़
शरीफ़ लोग थे घर से निकलना भूल गए
तिरी उमीद पे शायद न अब खरे उतरें
हम इतनी बार बुझे हैं कि जलना भूल गए
तुम्हें तो इल्म था बस्ती के लोग कैसे हैं
तुम इस के बा'द भी कपड़े बदलना भूल गए
हमें तो चाँद सितारों को रुस्वा करना था
सो जान-बूझ के इक रोज़ ढलना भूल गए
'हसीब'-सोज़ जो रस्सी के पुल पे चलते थे
पड़ा वो वक़्त कि सड़कों पे चलना भूल गए
~ हसीब सोज़
May 14, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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