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Wednesday, December 16, 2020

कैसा सुनसान है दश्त-ए-आवारगी


कैसा सुनसान है दश्त-ए-आवारगी
हर तरफ़ धूप है हर तरफ़ तिश्नगी
कैसी बे-जान है मय-कदे की फ़ज़ा
जिस्म की सनसनी रूह की ख़स्तगी
इस दो-राहे पे खोए गए हौसले
इस अंधेरे में गुम हो गई ज़िंदगी
*तिश्नगी=प्यास;  ख़स्तगी=शिथिलता

ऐ ग़म-ए-आरज़ू मैं बहुत थक गया
मुझ को दे दे वही मेरी अपनी गली
छोटा-मोटा मगर ख़ूब-सूरत सा घर
घर के आँगन में ख़ुश्बू सी फैली हुई
मुँह धुलाती सवेरे की पहली किरन
साएबाँ पर अमर-बेल महकी हुई
खिड़कियों पर हवाओं की अटखेलियाँ
रौज़न-ए-दर से छनती हुई रौशनी
शाम को हल्का हल्का उठता धुआँ
पास चूल्हे के बैठी हुई लक्छमी
*साएबाँ=छज्जा; रौज़न-ए-दर=दरवाज़े की दरार

इक अँगीठी में कोयले दहकते हुए
बर्तनों की सुहानी मधुर रागनी
रस-भरे गीत मासूम से क़हक़हे
रात को छत पे छिटकी हुई चाँदनी
सुब्ह को अपने स्कूल जाते हुए
मेरे नन्हे के चेहरे पे इक ताज़गी
रिश्ते-नाते मुलाक़ातें मेहमानियाँ
दावतें जश्न त्यौहार शादी ग़मी

जी में है अपनी आज़ादियाँ बेच कर
आज ले लूँ ये पाबंदियों की ख़ुशी

~ ख़लील-उर-रहमान आज़मी 

Dec 16, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

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