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Friday, November 28, 2014

अभी उफनती हुई नदी हो


अभी उफनती हुई नदी हो,
अभी नदी का उतार हो माँ,
रहो किसी भी दशा-दिशा में,
तुम अपने बच्चों का प्यार हो माँ।

नरम सी बाहों में खुद झुलाया,
सुना के लोरी हमें सुलाया ,
जो नींद भर कर कभी न सोई,
जनम-जनम की जगार हो माँ।

भले ही कांटों भरी हों गलियाँ,
जो तुम मिलीं तो मिली हैं कलियाँ,
तुम्हारी ममतामयी अंगुलियाँ,
बता रहीं हैं बहार हो माँ।

किसी भी मौसम ने जब सताया,
उढ़ा के आँचल हमें बचाया,
हो सख्त जाड़े में धूप तुम ही
तपन में ठँढी फुहार हो माँ।

दिया जो तुमने वो तन लपेटे,
तुम्हारी बेटी, तुम्हारे बेटे,
सदा तुम्हारे ऋणी रहेंगे,
जनम-जनम का उधार हो माँ।

तुम्हारे दिल को बहुत दुखाया,
खुशी तनिक दी बहुत रुलाया,
मगर हमेशा ही प्यार पाया,
कठोर को भी उदार हो माँ।

बड़ों ने जो भी यहाँ कहा है,
‘कुंवर’ उसे कुछ यों कह रहा है,
ये सारी दुनिया है एक कहानी,
तुम इस कहानी का सार हो माँ।

~ कुँवर 'बेचैन’


   May 6, 2013 | e-kavya.blogspot.com
   Submitted by: Ashok Singh

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