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Thursday, November 20, 2014

मैं फूलों को छूता भर हूँ



मैं फूलों को छूता भर हूँ
बस छूता भर हूँ
बहुत हुआ तो सूंघ लेता हूँ
बड़े आहिस्ते से
तोड़ने की इच्छा तो कभी नहीं हुई ।

मैं आकाश को देखता हूँ
बस देखता भर हूँ
बहुत हुआ तो खो जाता हुँ
बड़े आहिस्ते से
अंतरिक्ष युद्ध की इच्छा तो कभी नहीं हुई ।

मैं नदी को सुनता हूँ
बस सुनता भर हूँ
बहुत हुआ तो जल क्रीड़ा करता हूँ
बड़े आहिस्ते से
उनको बांधने की इच्छा तो कभी नहीं हुई ।

मैं लोगों को देखता हुँ
सुनता हूँ
छू भी लेता हूँ
यही महसूस होता है
वे लोग भाग रहे हैं
एक दूसरे को धकियाते हुए ।

उनके लिए
कोई फूल, आकाश या नदी
कोई मायने नहीं रखता
उनके पैरों तले
हर दिन कुचला जाता है
फूल, आकाश और नदी
ऐसे में
मैं जब तलाशता हूँ उन्हें
सिवा शून्य के कुछ भी तो नहीं मिलता ।

~ मोतीलाल, राउरकेला

   Jun 24, 2014

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