Disable Copy Text

Wednesday, May 11, 2016

आ गया लब पे अफ़साना-ए-आशिक़ी



आ गया लब पे अफ़साना-ए-आशिक़ी
अब किसी भी फ़साने की परवाह नहीं
हम तो उनसे मोहब्बत किए जायेंगे
अब हमें इस ज़माने की परवाह नहीं

*अफ़साना=झूठी या सच्ची प्रेम कथा

आज ऐ इश्क़ साया तेरा सर पे है
ताज क़दमों में है तख़्त ठोकर पे है
मिल गई हैं हमें प्यार की दौलतें
अब किसी भी ख़ज़ाने की परवाह नहीं

ज़िन्दगी में बहारें रहेंगीं सदा
हमने उल्फ़त के गुलशन में पा ली जगह
चाहे बिजली गिरे या चलें आँधियाँ
अब हमें आशियाने की परवाह नहीं

बन्दगी कर रहे हैं मोहब्बत की हम
ये नहीं जानते क्या है दैर-ओ-हरम
झुक गई है जबीं हुस्न के सामने
अब कहीं सर झुकाने की परवाह नहीं

*दैर-ओ-हरम=मंदिर और मस्जिद; जबीं=माथा

~ शकील 'बदायूँनी'


  May 6, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

No comments:

Post a Comment