Disable Copy Text

Wednesday, May 11, 2016

मुहासरा - घेराव



मेरे ग़नीम ने मुझको पयाम भेजा है
कि हल्क़ा-ज़न हैं मेरे गिर्द लश्करी उस के
फ़सील-ए--शहर के हर बुर्ज, हर मीनारे पर
कमां-बदस्त सितादा है अस्करी उसके

*ग़नीम=शत्रु; हल्क़ाज़न=घेरे हुए; गिर्द=चारो ओर; लश्करी=सिपाही; फ़सील-ए-शहर=नगर की चारदीवारी; कमां-बदस्त=कमान हाथ में; सितादा=तैयार; अस्करी=सैनिक

वह बर्क़ लहर बुझा दी गई है जिस की तपिश
वजूद-ए-ख़ाक में आतिशफ़िश़ां जगाती थी
बिछा दिया गया बारूद उसके पानी में
वो जू-ए-आब जो मेरी गली को आती थी

*तपिश=गरमी; बर्क़=बिजली; वजूद-ए-ख़ाक=मिट्टी का पुतला; आतिशफ़िश़ां=ज्वालामुखी; जू-ए-आब=नहर

सभी दरीदा-दहन अब बदन-दुरीदा हुये
सुपर्द-ए-दारो-रसन सारे सर-कशीदा हुये
तमाम सूफी-ओ-सालिक़ सभी शयूख-ओ-इमाम
उम्मीद-ए-लुत्फ पे ईवान-ए-कज- कुलाह में हैं
मोअज़्ज़िज़ीन-ए-अदालत भी हल्फ़ उठाने को
मिसाल-ए-साइल-ए-मुबर्रम नशिस्ता राह में हैं

*दरीदा-दहन=गुस्ताख़, अत्याचारी; बदन-दुरीदा=फटेहाल; सुपर्द-ए-दारो-रसन=सूली और रस्सी के हवाले; सालिक़=राहगीर; मोअज़्ज़िज़ीन=इज़्ज़तदार; हल्फ़=शपथ; नशिस्ता=बैठे हुये

तुम अहल-ए-हर्फ के पिंदार के सना-गर थे
वो आसमान-ए-हुनर के नुजूम सामने हैं
बस इस क़दर था कि दरबार से बुलावा था
गदागरान-ए-सुखन के हुजूम सामने थे

*अहल-ए-हर्फ=रचनाकार; पिंदार=गर्व; नुजूम=नक्षत्र; गदागरान-ए-सुखन=शायरी की भीख मांगने वाले

कलंदरान-ए-वफा की असास तो देखो
तुम्हारे साथ है कौन आस पास तो देखो
सो शर्त यह है जो जाँ की अमान चाहते हो
तो अपने लौहो-क़लम क़त्लगाह में रख दो
वगर्ना अब के निशाना कमानदारों का
बस एक तुम हो, सो ग़ैरत को राह में रख दो

*कलंदरान=आज़ादों जैसा; असास=बुनियाद; अमान=हिफ़ाज़त; लौहो-क़लम=क़लम और तख्ती; क़त्लगाह=वध स्थल; निशाना=लक्ष्य; ग़ैरत=स्वाभिमान

ये शर्त नामा जो देखा तो ऐलची से कहा
उसे ख़बर नहीं तारीख़ क्या सिखाती है
कि रात जब किसी ख़ुर्शीद को शहीद करे
तो सुबह इक नया सूरज तराश लाती है

*ऐलची=दूत; तारीख़=इतिहास; ख़ुर्शीद=सूर्य;

सो यह जवाब है मेरा मेरे अदू के लिए
कि मुझको हिर्स-ए-करम है न ख़ौफ़े-ख़म्याज़ा
उसे है सतवते-शमशीर पर घमंड बहुत
उस शिकोह-ए- क़लम का नहीं है अंदाज़ा

*अदू=शत्रु; हिर्स-करम=पुरस्कार की लालसा; ख़ौफ़े-ख़म्याज़ा=अंजाम का डर; सतवते-शमशीर=तलवार की ताक़त; शिकोह-ए- क़लम=क़लम का डर

मेरा क़लम नहीं किरदार उस मुहाफ़िज का
जो अपने शहर को महसूर करके नाज़ करे
मेरा क़लम नहीं कासा किसी सुबुक सर का
जो गासिबों को क़सीदों से सरफ़राज़ करे

*मुहाफ़िज=रक्षक; महसूर=घेरकर; कासा=कवच; गासिबों=अतिक्रमी; क़सीदा=शायरी, जिसमें किसी की प्रशंसा की जाये; सरफ़राज़=मशहूर,

मेरा क़लम नही उस नक़बज़न का दस्ते-हवस
जो अपने घर की ही छत में शगाफ़ डालता है
मेरा क़लम नही उस दुज़्दे नीमशब का रफ़ीक
जो बेचराग़ घरों पर कमंद उछालता है।

*नक़बज़न=सेंधमार; दस्ते-हवस=लोभी हाथ; शगाफ़=दरार; दुज़्द=चोर या डाकू; नीमशब=आधी रात; रफ़ीक=साथी; कमंद=फंदा,

मेरा क़लम नही तस्बीह उस मुबल्लिग की
जो बंदगी का भी हरदम हिसाब रखता है
मेरा क़लम नहीं मीज़ान ऐसे आदिल की
जो अपने चेहरे पर दोहरा नक़ाब रखता है।

*तस्बीह=माला; मुबल्लिग=धर्म उपदेशक; मीज़ान= तराज़ू; आदिल=न्याय करने वाला

मेरा क़लम तो अमानत है मेरे लोगों की
मेरा क़लम अदालत मिरे ज़मीर की है
इसी लिये तो जो लिखा तपाक-ए-जाँ से लिखा
जभी तो लोच कमाँ का ज़बान तीर की है

मैं कट गिरूं कि सलामत रहूँ यक़ीं है मुझे
कि ये हिसार-ए-सितम कोई तो गिरायेगा
तमाम उम्र की ईज़ा नसीबिओं की क़सम
मिरे क़लम का सफ़र रायगाँ न जायेगा

*हिसार-ए-सितम=ज़ुल्म का घेरा

~ अहमद फ़राज़


  May 1, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

1 comment:

  1. इस वीडिओ को देखने के बाद, नज़्म की महत्ता कई गुना और बढ़ जाती है:
    https://www.youtube.com/watch?v=2QzXmjl-LTQ

    ReplyDelete