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घर जब बना लिया तेरे दर पर कहे बग़ैर
जानेगा अब भी तू न मेरा घर कहे बग़ैर
कहते हैं, जब रही न मुझे ताक़त-ए-सुख़न
जानूं किसी के दिल की मैं क्योंकर कहे बग़ैर
*ताक़त-ए-सुख़न=शायरी
काम उससे आ पड़ा है कि जिसका जहान में
लेवे ना कोई नाम सितमगर कहे बग़ैर
*जहान=दुनिया; सितमगर=अत्याचारी, ज़ुल्मी
जी में ही कुछ नहीं है हमारे, वगरना हम
सर जाये या रहे, न रहें पर कहे बग़ैर
छोड़ूँगा मैं न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना
छोड़े न ख़ल्क़ गो मुझे काफ़िर कहे बग़ैर
*बुत-ए-काफ़िर=मोहक सुंदरी; ख़ल्क़=लोग; काफ़िर=नास्तिक, इस्लाम न मानने वाला
मक़सद है नाज़-ओ-ग़म्ज़ा वले गुफ़्तगू में काम
चलता नहीं है, दश्ना-ओ-ख़ंजर कहे बग़ैर
*नाज़-ओ-ग़म्ज़ा=नाज़-नखरा; वले=मगर; दश्ना-ओ-ख़ंजर=छुरा और चाकू
हरचन्द हो मुशाहित-ए-हक़ की गुफ़्तगू
बनती नहीं है बादा-ओ-साग़र कहे बग़ैर
*हरचन्द=हर तरफ; मुशाहित-ए-हक़= ख़ुदा को देखने; बादा-ओ-साग़र=मय और प्याला
बहरा हूँ मैं तो चाहिये दूना हो इल्तफ़ात
सुनता नहीं हूँ बात मुक़र्रर कहे बग़ैर
*इल्तफ़ात=कृपा; मुक़र्रर=दुबारा
'ग़ालिब' न कर हुज़ूर में तू बार-बार अर्ज़
ज़ाहिर है तेरा हाल सब उन पर कहे बग़ैर
~ मिर्ज़ा ग़ालिब
May 5, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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