मैं पीछे मुड़ कर देखूँगा
और तुम्हारे प्राण
चुक जाएँगे।
मेरा गायन (और मेरा जीवन)
इस में है कि तुम हो,
पर तुम्हारे प्राण इस में हैं
कि मैं गाता रहूँ और बढ़ता जाऊँ,
और मुड़ कर न देखूँ।
कि यह विश्वास मेरा बना रहे
कि तुम पीछे पीछे आ रही हो
कि मेरा गीत तुम्हें
मृत्यु के पाश से मुक्त करता हुआ
प्रकाश में ला रहा है।
प्रकाश!
तुम में नहीं है प्रकाश
प्रकाश! मुझ में भी नहीं है
प्रकाश गीत में है।
पर नहीं
प्रकाश गीत में भी नहीं है;
वह इस विश्वास में है
कि गीत से प्राण मिलते हैं।
कि गीत प्राण फूँकता है।
कि गीत है तो प्राणवत्ता है
और वह है जो प्राणवान है।
क्यों कि सब कुछ तो उसका है
जो प्राणवान् है
वह नहीं है तो क्या है?
गा गया वह गीत खिल गया
वसन्त नीलिम, शुभ्र, वासन्ती।
वह कौन?
पाना मुझे है!
मेरी तड़प है आग
जिसमें वह ढली!
मेरी साँस के बल
चली वह आ रही है।
नहीं, मुड़ कर नहीं देखूँगा।
क्योंकर खिले होते फूल
नीलिम, शुभ्र, वासन्ती
यदि मैं ही न गाता
और सुर की डोर से ही बँधी
पीछे वह न आती
~ अज्ञेय
Dec 31, 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
No comments:
Post a Comment