मिर्ज़ा ग़ालिज़ की 220वीं जन्म-तिथि पर:
हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
मक़्दूर हो तो साथ रखूँ नौहागर को मैं
*मक़्दूर=ताकत; नौहागर=शोक करने वाला
छोड़ा न रश्क ने कि तिरे घर का नाम लूँ
हर इक से पूछता हूँ कि जाऊँ किधर को मैं
*रश्क=ईर्ष्या
जाना पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार
ऐ काश जानता न तिरे रह-गुज़र को मैं
है क्या जो कस के बाँधिए मेरी बला डरे
क्या जानता नहीं हूँ तुम्हारी कमर को मैं
लो वो भी कहते हैं कि ये बे-नंग-ओ-नाम है
ये जानता अगर तो लुटाता न घर को मैं
*बे-नंग-ओ-नाम=बिना नाम या पहचान
चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़-रौ के साथ
पहचानता नहीं हूँ अभी राहबर को मैं
ख़्वाहिश को अहमक़ों ने परस्तिश दिया क़रार
क्या पूजता हूँ उस बुत-ए-बेदाद-गर को मैं
*अहमक़=मूर्ख; परस्तिश=पूजा; बुत-ए-बेदाद-गर=निरंकुश बुत
फिर बे-ख़ुदी में भूल गया राह-ए-कू-ए-यार
जाता वगरना एक दिन अपनी ख़बर को मैं
*राह-ए-कू-ए-या=मित्र की गली
अपने पे कर रहा हूँ क़यास अहल-ए-दहर का
समझा हूँ दिल-पज़ीर मता-ए-हुनर को मैं
*यास=अंदाज़ा; दहर= दुनिया; दिल-पजीर=जो दिल को भाये; मता=सामान
'ग़ालिब' ख़ुदा करे कि सवार-ए-समंद-नाज़
देखूँ अली बहादुर-ए-आली-गुहर को मैं
*समन्द-ए-नाज़=कुलीन अश्व
~ मिर्ज़ा ग़ालिब
Dec 27, 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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