मैं भी अंधियारे से समझौता कर लेता,
चांदनी न यदि कर जाती मन पर हस्ताक्षर
धर विविध रूप जग में करता है अंधियारा
मैं कई बार अपनी जीती बाज़ी हारा
पर चरण रहे गतिशील ठोकरें खा कर भी
मन तम के हाथों बिका नहीं झुंझला कर भी,
चिंतक की लौ देती प्रति क्षण आलोक रही
भटका भरमाया किंतु पा गया पंथ सही
मैं भी पोखर से अपनी प्यास बुझा लेता
उल्लास न यदि अंतर में भर जाता निर्झर।
है महानगर में शोर, शोर में महानगर
बरबस हथेलियाँ बंद कर रहीं कर्ण कुहर
नागरिक नहीं रहते, रहती है भीड़ यहाँ
सारे सराय लगते हैं अपने नीड़ यहाँ
सकुची शरमार्ई यहाँ सहजता रहती है
उल्लसित कुटिलता के हाथों दुख सहती है
मैं भी कौओं के स्वर पर वाह-वाह करता
यदि सुन न लिया होता मैंने कोयल का स्वर।
कोकिला, सारिका पपीहा रहते मौन यहाँ,
इनके स्वर अर हर्षाने वाला कौन यहाँ,
चिल्लाते हैं सब यहाँ न कोई बतियाता
धीमा स्वर इस बस्ती को रास नहीं आता
कृत्रिमता है यथार्थ की चूनर से सज्जित
भोला यथार्थ आवरणहीन ख़ुद में लज्जित
मैं भी चंदन के बदले शीशम घिस लेता
परिचित अगर न होती चंदन की गंध मुखर।
~ देवराज दिनेश
Dec 30, 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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